Wednesday 13 December 2017

आह! चाँद का मुँह

आह! चाँद का मुँह

सुबह उठता हूँ तो याद आता है


'मुक्तिबोध' को पूरा नहीं किया 

अभी तक
फिर खोजने लगता हूँ
पागलों की तरह पूरे घर में
एक 'कविता-संग्रह'!


जिसे पढ़ना शुरू तो किया


पर कुछ अकस्मात कारणों से 

वापस रख दिया था
रखकर भूल गया था
पुस्तक खोजने में व्यस्त मैंने
कमरे को बना दिया कूड़ाघर सा
पर अब भी अपना-अपना सा लगता है!

(गूगल इमेज से साभार)


यहीं होनी चाहिए 


यहीं होनी चाहिए

और कहीं तो नहीं रखता
इस तरह फैला पूरे कमरे में सामान
फिर मिल गया
गजानन माधव मुक्तिबोध का काव्य-संग्रह!


फैली हैं सब चीजें


पूरे कमरे में अभी तक

मैंने खोज लिया है पुराना 'बुकमार्क'
शुरू कर दिया है पाठ 
कालजयी रचनाओं का
आह! 'चाँद का मुँह टेढ़ा है'


©नितिन चौरसिया

(कलमकृति में प्रकाशित कविता)


No comments:

Post a Comment

नज़्म : उसके एक दीवाने हम भी हैं

नज़्म : उसके एक दीवाने हम भी हैं ~ इक दीवानी लड़की है जो खुद में खोई रहती है उसकी इस मासूम अदा के एक दीवाने हम भी हैं उस दीवानी लड़की क...