Monday 4 December 2017

गठरी यादों की

गठरी यादों की 

तुम्हारी यादों में गुम अक्सर ही देर रात तक कमरे की बालकनी में बैठा चाँद को निहारा करता था और दिल इस ख़याल में रहता था कि तुम जहाँ कहीं भी होगी एकटक देख रही होगी चाँद की ओर तुम भी इसी ख्याल में ग़ुम होगी कि मैं चाँद को और तुमको सामने रखकर घंटो कैसे उसपर लगे टेड़े-मेढे धब्बों की बातें करते हुए तुम्हारी तारीफों के पुल बांधता और तुम रह रहकर शर्म से मुस्कुराते हुए अपनी हथेलियों से अपने चेहरे को छिपा लेती थी |
आज भी चाँद को देख रहा था मैं बालकनी से बाहर की तरफ पैरों को लटकाकर बैठे हुये | मौसम तो एकदम साफ़ था पर अचानक न जाने कहाँ से काले बादल आए और चाँद को ऐसे छिपा लिया जैसे तुम छिपती थी अपना मुखड़ा | इक पल को लगा जैसे चाँद के दूसरी ओर बैठी हुयी हो तुम और तुम्हारी नज़रें चाँद की ओर देखती हुयी मेरी नजरों की गिरफ़्त में आ गयी हों और फिर मारे हया के तुमने अपने हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया हो |
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आजकल बिना रात हुए अमावस्या और पूर्णिमा का भी पता नही चलता | सोमवार को सारी रात तारों को ताकते हुए गुजार दी | सोंच रहा था कि अगर आसमान का चाँद तुम हो तो मैं ईद के चाँद का तारा क्यूँ नही बन जाता और तुम्हारी खूबसूरती को एक नया आयाम देता |
कल बरसात के बाद जो पानी भर गया था, गड्ढों में, आज उसमे चाँद की इक झलक देखी और ख्यालों में गुम मैं तुम्हारे घर की छत से बगल खाली पड़े प्लाट में भरे पानी में दिखने वाले चाँद के प्रतिबिम्ब तक पहुँच गया | पर तुम न दिखी | दिखोगी भी कैसे? तुम तो जा चुकी हो किसी नए शहर, अन्जान लोगों के बीच अपनापन तलाशने |

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