Sunday 8 April 2018

अश्क़ २


'सुनो, तुम्हारी एक ही आदत सबसे बुरी लगती है मुझको', उसने अपना हक जताते हुए कहा ।

'कौन सी?', उसने पूछा ।

'तुम्हे कोई शहर ज्यादा समय तक रोक नहीं पाता, रोकने की कोशिश करता है तो तुम आज़ाद हो जाते हो । जैसे तुम्हारा वास्ता ही न रहा हो उस शहर से कोई । तुमने बनारस जैसी नगरी छोड़ दी, इलाहाबाद जैसा शहर बेगाना कर गए, अहमदाबाद की शांत और एकांत की जिंदगी भी तुमको न भायी । तुम किसी एक शहर के नहीं हो पाते', उसने शिकायत भरे लहजे में कहा ।

'शहर बेगाने हुए तो क्या लोग तो अब तक दिल में ही हैं न! हम कहाँ रहते हैं और कहाँ नहीं इसके कोई मायने नहीं हैं, पर हम किनके दिलों में बसते हैं और कौन हमारे दिलों में ये जरूरी है', उसने अपना पक्ष दिया ।

'अपनी फिलोसॉफी अपने पास रखो । मैं तुम्हें अबकी बार लखनऊ से नहीं जाने दूँगी', उसकी आँखे नम हो आयी थीं ।

मौसम के रुख में बदलाव हुआ । हवायें तेज हो गयी । आसमान से सितारे गायब होने लगे और आधा चाँद जो ऊपर चमक रहा था वो बादलों में छुप गया ।

निकहत को एक बार लगा कि इस बार सलीम यहीं रुक जाएगा लेकिन सलीम ने उसको बाहों में भरते हुए कहा - जिंदगी चलती रहेगी, शहर बदलते रहेंगे, बस दिल में बसी तुम्हारी तस्वीर कभी न बदलेगी ।

निकहत के आँसुओं के साथ - साथ आसमान से भी बारिश होने लगी । हवा ने आँधी का रूप ले लिया । सारे शब्द ख़ामोश थे । दोनों की रूहें एक दूसरे से वादा कर रही थी कि चाहे कुछ भी हो हम एक - दूजे के ही रहेंगे । पर दोनों को ये एहसास भी था कि शायद ये मिलन की आखिरी रात हो । रात के अन्धकार में आलिंगन में बंधे दोनों रज्जब माह की पहली बारिश या यूँ कहें कि बिन मौसम की बारिश में भीग रहे थे ।


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