Wednesday 8 November 2017

स्वप्नों का व्यापारी

शीर्षक : स्वप्नों का व्यापारी

स्वप्न बेचने वाला एक दिन आया एक छोटी नगरी में
सुन्दर - सुन्दर स्वप्न भरे हैं बोला मेरी गठरी में
गली - गली आवाज़ गयी और लोगों ने उसे घेर लिया
लोगों में कौतूहल था – क्या बात सत्य है कुँजड़े की ?

भीड़ इकट्ठी देख देखकर कुंजड़ा मन में हरषाया था
स्वप्न बेचने का अवसर उसने इस नगरी में पाया था
उत्सुकतावश एक व्यक्ति ने - जो पेशे से बनिया था
उसने पूछा ‘क्या लाये हो ? जो मैं न ला पाया था ?’

स्वप्न सुनहरे लिए हुए हूँ मैं इस छोटी गठरी में
जो तुम सोंचो वो मैं बेंचू सब कुछ है इस गठरी में
सुनकर भीड़ ख़ुशी से चहकी सबने अपने स्वप्न कहे
उस कुँजड़े ने स्वप्न सभी के सच करने के वचन दिए

गुजर रहे थे तभी वहां से कुछ सिपाही राजा के
भीड़ जमा देखी तो बोले – पता करें क्या है जा के ?
सपने में डूबे लोग दिखे तब एक सिपाही तर्क किया
बोला गठरी तो खुली नहीं फिर मानूँ कैसे बात तेरी ?

था उस नगरी में प्रजातन्त्र और प्रजा मुग्ध थी कुँजड़े पर
कुंजड़ा बोला खोलूँ गठरी मैं बैठा दो गर मुझे तख़्त पर !
बच्चे – बूढ़े – नर – नारी सब त्रस्त थे अपने सपनों से
वो भूल गए सच होते हैं अपनी मेहनत से – कर्मों से

था लगा प्रजा को आज मिला है इक अवसर न जाने दें
है तख़्त बदलता हर पाँच वर्ष इक बार इसे भी आने दें
गठरी खोलेगा सच हो जायेंगे अपने सपने सारे
पर नहीं जानते थे वो अब क्या खेल करेगा ये प्यारे !

सबके दुःख मिट जायेंगे सब संपन्न हो जायेंगे
भेदभाव का अन्त होगा रोजगार सब पायेंगे
हर कलुषित कारागार में होगा निर्भय हम जी पायेंगे
और आएगा ‘रामराज्य’ हर राग – द्वेष मिट जायेंगे

पर जब आया स्वयं तख़्त पर सारे वादे भूल गया
था राज्य चलाना अब उसको नए स्वप्न बेचने शुरू किया
किया बेचना शुरू उसी ने कुछ चल अचल सम्पत्ति को
रख रखी थी पूर्व भूप ने संग्रह किसी विपत्ति को

आएगा, धन आएगा, फिर हम विकसित हो जायेंगे
अपनी नगरी के अन्दर हर घर विकास हम लायेंगे
ऐसा कहकर राजा ने फिर लोगों का विश्वास लिया
और विकास के आगमन का चप्पे – चप्पे प्रचार किया

वो भूल गया कुछ स्वप्न सुने थे उसने गरीब किसानो के
जो उपजाते थे अन्न मगर लाले थे उनके खाने के
व्यापारी...वो व्यापारी था व्यापारी की बात सुनी
भूल गया वह प्रजातन्त्र है है चुना उसे भी किसानों ने

एक रोज नगर के किसानों ने अपने सपनों की बात सुनाई थी
पर राजा ने भी स्वप्न देख उस नगर में सत्ता पायी थी
बोला सपने सच करने को जाकरके कर्म करो प्यारे
डालो खेतों में बीज, खाद और उपजाओ अनाज प्यारे

उसपर किसान ने जब उसको महँगाई याद दिलायी थी
अपना कर्ज गिनाया था माली हालत बतलायी थी
खेती में आता खर्च बहुत न न्यूनतम मूल्य बढ़ाये हैं
था याद दिलाया उसको उसने झूठे स्वप्न दिखाए हैं

राजा को चुप देख जरा सा जनता में आक्रोश हुआ
अहंकार की जननी सत्ता राजा को भी क्रोध हुआ
रामराज्य की बात कही थी – जाने वो कैसा शासन था ?
रक्त बहा फिर हलवाहों का सपना क्या खूब दिखाया था !

प्रजा नहीं है कामचोर न उसको मेहनत से डर है
पर रोजगार के उत्तम अवसर अब भी नहीं नगर में हैं
स्वप्न बेचने वाले तूने सत्ता खूब संभाली है
तेरा सपना सच हुआ मगर जनता में अब भी बदहाली है...




1 comment:

  1. बहुत सुन्दर कविता है भइया

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