Monday 8 January 2018

अंजाम-ए-इश्क़

राह सूनी रात तनहा
और फिर वो याद आये
याद उनकी थी कुछ ऐसी
क्या करें? कुछ न सुझाये ।

थी अभी तक दोस्ती पर
दिल में थे गुलशन सजाये
सोंचते थे दिल की बातें
हम जुबान पर कैसे लायें?

एक दिन जब शाम ढ़लते
उसने थामा हाथ मेरा
फिर लिपटकर मुझसे बोली
काश ये पल ठहर जाये !

अब भी था मैं सोंच में
कि ये अचानक क्या हुआ?
लग रहा था छँट चुके थे
दर्द के वो घने साये ।

भींच उसको बाजुओं में
मैंने उसके सर को चूमा
और मैंने भी कहा फिर
काश ये पल ठहर जाये !

जब तलक मुझसे थी लिपटी
धड़कनें मेरी बढ़ी थी
मेरे कानों तक थी पहुँची
उसके धड़कन की सदायें ।

बाद उसके कह उठा मैं
चाहता तुमको हूँ इतना
कि बताने पर जो आऊँ
उम्र भी ये कम पड़ जाये ।

उसने मेरे लब पर अपने
लब सजाये फिर कहा
चुप रहो कुछ न कहो
कहीं नज़र न लग जाये !

और फिर जब पार्क में
कोने की हमने बेंच पकड़ी
बाद उसके जो हुआ
उस दास्ताँ को क्या सुनाये?

वक़्त फिर कुछ यूँ ही बीता
मेरा काँधा उसका सिर
और उस खामोश पल में
उसकी ढेरों ही कथायें ।

पार्क के जब गार्ड ने
सीटी बजायी रात दस
न चाहते हुए भी हमने
अपने-अपने बस्ते उठाये ।

तेज... इतनी तेज से
बढ़ने लगी फिर ये कहानी
और फिर एक रात हमने
जिस्म ही ओढ़े बिछाये !

लग रहा होगा ये किस्सा
आम सा, पर खास है
क्योंकि उसकी याद
बस एक याद नहीं, एहसास है ।

मैं जानता हूँ आज
वो न साथ है, पर साथ है
दिल में मेरे आज भी
उसके लिए जज्बात है ।

प्रेम था ये प्रथम
काश आखिरी भी प्रेम ये हो
बस इसी एक आरजू में
जाने कितने दिन बिताये ।

दिल ने शायद की नादानी
भूलकर सामाजिक रस्में
पर क्या होता मिलन उनका
जिन्होंने खायी थी कसमें ?

हूँ बताता आपको मैं
बात कुछ यूँ हो चली थी
लड़का था हिन्दू घराना
लड़की वो मुस्लिम कली थी ।

कहने को कह सकते हो
कि भाग जाते घर से वो
पर भाग जाना घर से ही
बोलो क्या उचित बात थी ?

और उसके साथ ही
ये बात थी दोनों को मालूम
घर को रुसवा करके जाने
में भी तो खूब बंदिशें थीं ।

इसके आगे राजनीति
धर्म और उन्माद उसका
रोक पता क्या भला कोई
प्रलय का फिर सवेरा ?

बात यूँ है कि हमारे
दिल में कुंठा है बसी
हम नहीं स्वीकार पाते
कोई एक रीति नयी ।

बात यूँ है कि हमारा
मन है पूर्वाग्रह ग्रसित
हम नहीं स्वीकार पाते
कोई एक प्रीति नयी ।

बात यूँ है कि हमीं ने
खींच रखी हैं लकीरें
हम नहीं स्वीकार पाते
कोई इनको खींचे-तोड़े ।

बात यूँ है कि हमारा
अहं भी है टूट जाता
हम नहीं स्वीकार पाते
कोई हमको गलत बोले ।

पर मेरी एक बात को
तुम ध्यान से सोंचों अगर
तो लगेगा कितने घर
टूटने से बच जाते मगर...

इस रीति रस्म रिवाज़ ने
पहना दिया है जो हमें
टूटेंगी कैसे भला अब
रूढ़ियों की बेड़ियाँ ?

इंसान को इंसान से गर
प्यार का हक़ है तो फिर
इंसान का इंसान से
रूहों का ताल्लुक क्यों न हो?

रूहों का ताल्लुक है अगर
जिस्मों का ताल्लुक क्यों न हो?
जिस्मों का ताल्लुक भी हुआ
तो रस्मों का ताल्लुक क्यों न हो?

फिर रूढ़ियाँ और बेड़ियाँ
ये सब तो बस बेकार हैं
इंसान को इंसान संग रहने का
प्रकृति ने दिया अधिकार है ।


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