तुमने
तोड़ दिए सारे बंधन
भुला दिए सारे रिश्ते
और वादे
जो शायद
उम्र के किसी नाज़ुक पड़ाव
पर
किये थे
एक अजनबी से
जान-पहचान हो जाने के बाद
!
तुमने
छोड़ दिया वो आँगन
बेगाना कर दिया वो घर
और उस तक जाने वाली
गलियां
जहाँ शायद
उम्र के उसी नाज़ुक पड़ाव
पर
संजोये थे
प्रीत के सपने
अपनी हथेलियों को
उस अजनबी के हाथों में
देते हुए !
तुमने
जरूरी नहीं समझा
कभी पलटकर देखना
शायद
गुजरते वक़्त के साथ
संजीदा होने का दिखावा
करते – करते
एक नाइ राह खोज ली !
तो अब क्या
बीते लम्हों के ज़ख्मों पर
मरहम लग पायेगा ?
क्या लौट सकेगा गुज़रा
वक़्त ?
क्या अब मुनासिब होगा
यूँ लौट आना तुम्हारा
अपनी तमाम जिम्मेदारियों
को छोड़ !
नहीं !
तुम्हारे बाद से ठहरी हुयी
जिन्दगी में
अब तुम्हारे हाथों के
फेंके पत्थर से
लहरें नहीं उठेंगी
चाहो तो ये मान लो
कि उम्र के उस नाज़ुक पड़ाव
में
किये गए हर वादे
और संजोये गए हर सपने
अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं
||
Waah
ReplyDelete